हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘आलोचना’ की वेबसाइट शुरू


हिन्दी की प्रतिष्ठित त्रैमासिक पत्रिका ‘आलोचना’ की आधिकारिक वेबसाइट सोमवार से शुरू हो गई है। वेबसाइट पर आलोचना के पुराने अंकों के लेखों के साथ नई पाठ्य सामग्री भी उपलब्ध होगी। आलोचना पिछले सात दशक से भी अधिक समय से हिन्दी पाठकों की सबसे प्रिय पत्रिकाओं में शुमार रही है। वेबसाइट से आलोचना के लेख और पाठ्य सामग्री तक पाठकों की पहुँच और भी आसान हो जाएगी। आलोचना ऑनलाइन का पता www.aalochanamagazine.com है। यह जानकारी राजकमल प्रकाशन के प्रबन्ध निदेशक अशोक महेश्वरी ने दी।

प्रतिष्ठित पत्रिका ‘आलोचना’

उन्होंने कहा, “आलोचना पत्रिका की शुरुआत 1951 में सभ्यता-समीक्षा की एक वैचारिक मुहिम के तौर पर की गई थी। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होनेवाली इस पत्रिका के पहले संपादक आलोचक शिवदान सिंह चौहान थे। हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक-चिंतक नामवर सिंह लंबे समय तक आलोचना से जुड़े रहे। इन सात दशकों के दौरान आलोचना के अनेक ऐसे विशेषांक निकले जो अविस्मरणीय हैं। वर्तमान में प्रोफेसर संजीव कुमार और प्रोफेसर आशुतोष कुमार आलोचना के संपादक हैं। आलोचना ऑनलाइन भी इन्हीं के संपादन में आगे बढ़ेगी।”

‘एक जीवंत साझा मंच मुहैया कराएगी आलोचना ऑनलाइन’

आलोचना के संपादक आशुतोष कुमार ने कहा, हिन्दुस्तानी समाज के साहित्यिक दायरे के वैचारिक केंद्रक के रूप में आलोचना पत्रिका के 72 साल पूरे हो चुके हैं। अब पहली बार आलोचना ऑनलाइन आ रही है जो हिंदी-उर्दू के दुनिया भर के लेखकों-पाठकों को एक जीवंत साझा मंच मुहैया करेगी। खास तौर पर इसका मकसद युवा पीढ़ी की रचनाशीलता और बौद्धिकता को संबोधित और संगठित करना है। मानव जाति के लोकतांत्रिक और समतावादी स्वप्न को नया आवेग देने के लिए ऐसा करना जरूरी लगता है।

आलोचना के संपादक संजीव कुमार ने कहा कि हिंदी की दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है जो लैपटॉप और मोबाईल के स्क्रीन से हटकर प्रिंट की दिशा में कम ही जाते हैं। इसीलिए अक्सर किसी लिंक या पीडीएफ़ की माँग सोशल मीडिया पर देखने को मिलती है। दूसरी तरफ़ वेब और सोशल मीडिया से बिल्कुल अछूते रह गए लोगों का भी एक तबका है। आप किसी पत्रिका को प्रिंट से हटाकर वेब में ले जाने की बात करें तो ऐसा कहने वाले कई लोग मिलेंगे कि ‘फिर हमारा क्या होगा?’ इन दोनों तरह के तबकों को ध्यान में रखते हुए यह ज़रूरी लगा कि ‘आलोचना’ त्रैमासिक को प्रिंट में बनाए रखते हुए भी इसका एक ऐसा वेब पोर्टल तैयार किया जाए जहाँ इस त्रैमासिक की नई-पुरानी पठनीय सामग्रियों को साझा किया जाए; साथ ही, ऐसी अप्रकाशित सामग्री भी साझा की जाए जिसके लिए त्रैमासिक की अपनी आवृत्ति का इंतज़ार नहीं किया जा सकता। ‘आलोचना ऑनलाइन’ इसी ज़रूरत को पूरा करने की दिशा में एक कोशिश है। ऐसी कोशिशों की अपनी निहित, अप्रकट संभावनाएँ भी होती हैं जो समय के साथ खुद अपनी राह तलाश लेती हैं। ऐसी संभावनाएँ अभी हमारे लिए भी अप्रकट ही हैं। जो बात एकदम स्पष्ट है, वह यह कि ‘आलोचना’ त्रैमासिक की अपनी समृद्ध परंपरा के पास अनगिनत ऐसी चीज़ें हैं जो अंतर्जाल पर ही निर्भर पाठकों तक पहुँचनी चाहिए, और यह भी कि बहुत कुछ ऐसा है जिसे हम त्रैमासिक के अंकों की समयावधि और पृष्ठ-सीमा के मद्देनज़र अपने पाठकों तक ऑनलाइन ले जाना चाहेंगे।

ई-मैगजीन के रूप में उपलब्ध होंगे सभी पुराने अंक

अशोक महेश्वरी ने कहा, आलोचना पत्रिका के प्रिंट संस्करण के पाठक देश-विदेश में हजारों की संख्या में हैं जो इसके हर अंक का बेसब्री से इंतजार करते हैं। वेबसाइट के रूप में इस पत्रिका की सामग्री उपलब्ध होने से यह और भी बड़े पाठकवर्ग तक पहुँच सकेगी। वेबसाइट पर पाठकों को नई पाठ्य-सामग्री तो मिलेगी ही, साथ में पाठक इसके पिछले अंकों के चुनिंदा लेख भी पढ़ सकेंगे। हम आलोचना के सभी अंकों को ई-मैगजीन के रूप में इस वेबसाइट पर उपलब्ध कराने की योजना पर भी काम रहे हैं। जल्द ही पाठक इसके सभी अंकों को डिजीटल रूप में आसानी से प्राप्त कर सकेंगे।

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‘आलोचना’ का परिचय

स्वतंत्रता के बाद देश और खास तौर पर हिन्दी समाज को एक वैचारिक नेतृत्व की जरूरत थी। इसी उद्देश्य को लेकर ‘आलोचना’ सामने आई। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस त्रैमासिक पत्रिका का पहला अंक अक्तूबर 1951 में आया; और पहले ही अंक से उसने अपनी क्षमता और उद्देश्यों को स्पष्ट रूप में रेखांकित कर दिया।

‘आलोचना’ को सिर्फ साहित्यिक विमर्शों और समीक्षा आदि की पत्रिका नहीं होना था, और वह हुई भी नहीं। उसकी चिन्ता के दायरे में इतिहास, संस्कृति, समाज से लेकर राजनीति और अर्थव्यवस्था तक सभी कुछ था। विश्व के वैचारिक आन्दोलनों और अवधारणाओं को भी उसने बराबर अपनी निगाह में रखा। इसी विराट दृष्टि के चलते ‘आलोचना’ हिन्दी मनीषा के लिए एक नेतृत्वकारी मंच के रूप में सामने आई, और धीरे-धीरे मानक बन गई।

‘आलोचना’ के सम्पादक बदले, लेकिन उसकी दृष्टि का दायरा और फोकस कभी नहीं बदला। आज भी, वह लोकतांत्रिक प्रगतिशील और समतावादी मूल्यों के पक्ष में साहसपूर्वक खड़ी हुई है।