‘क़िस्साग्राम’ उपन्यास पर प्रभात रंजन के मन की बात


‘क़िस्साग्राम’ उपन्यास के बारे में बता रहे हैं लेखक और प्रसिद्ध वेबसाइट जानकी पुल के मॉडरेटर प्रभात रंजन-

कहा जाता है कि प्रत्येक इंसान के पास एक उपन्यास की कहानी होती है लेकिन लिख सब नहीं पाते। उस एक उपन्यास को लिखने के क्रम में मैंने अनेक उपन्यास शुरू किए, लेकिन कोई भी कहानी पूरी नहीं हुई। मैं जो लिखना चाहता था और जो लिखा जा रहा था दोनों का अंतर इतना अधिक रहता था कि कोई भी कहानी पूरी नहीं हो पाई। मैं लगभग निराश हो गया था। मैंने यह मान लिया था कि मैं उपन्यास नहीं लिख सकता। मैंने तीन संग्रह भर के कहानियाँ लिख लीं लेकिन एक उपन्यास नहीं लिख पाया।

मैं कई कहानियों को पूरा करने में लगा था कि यह उपन्यास चुपचाप आया। ऐसे कि पता भी नहीं चला। लॉकडाउन के दौरान एक कहानी लिखी थी लगातार छप्पन दंगल जीतने वाले छकौरी पहलवान की जो हनुमान जी का मंदिर तोड़कर गायब हो गया था। क्यों गया? बताने वाले सब थे लेकिन कहाँ गया यह बहुत बड़ी गुत्थी थी। तभी सोचा था कि इतने बड़े पहलवान को ऐसे गायब करना सही नहीं रहेगा उसको खोजकर लाना जरूर है। अगले दो साल में कई बार उसको खोजने की कोशिश की। लेकिन असफल रहा। हर बार और-और कहानियाँ दिमाग़ में घूमने लगतीं, छकौरी पहलवान की कहानी पीछे रह जाती। कई-कई किरदार सामने आने लगते छकौरी पहलवान पीछे रह जाते।
'क़िस्साग्राम' उपन्यास पर प्रभात रंजन के मन की बात
क़िस्साग्राम / प्रभात रंजन

बीच-बीच में पहलवानों को लेकर अविश्वसनीय समाचार सामने आते रहे। ओलंपिक पदक विजेता एक पहलवान हत्या का आरोपी बन गया। तब भी मुझे छकौरी पहलवान की बहुत याद आई। पिछले साल से कुश्ती संघ के ख़िलाफ़ पहलवान आवाज़ उठाते रहे लेकिन उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही थी। मुझे बार बार छकौरी पहलवान याद आ रहे थे। सोचता वह होते तो क्या करते, क्या उनका नाम जिले के बाहर फैला होता। फिर जिले-मोहल्ले के लोग याद आने लगते। सब याद आता था लेकिन कहानी सुझाई नहीं दे रही थी।

इस बीच हुआ यह कि पिछले साल-दो साल में कई बार अपने गाँव जाना हुआ। अपने गाँव और आसपास के दूसरे गाँवों को क़रीब से महसूस करने का मौक़ा मिला। एक बात यह है कि गाँवों में सड़कें बन गई हैं, बिजली पहले से ज्यादा रहने लगी है, अमेज़न की डिलीवरी पहुँचने लगी है, स्विगी-जोमैटो खाने की डिलीवरी करने लगा है। पहले जब अपने या आसपास के गाँवों के लोग मिलते या उनसे फ़ोन पर बातचीत होती, और अगर वे मेरी किताबें माँगते तो मैं यह कहकर उनको टरका देता कि गाँव आऊँगा तो लेता आऊँगा। गाँव आने की वह तिथि हर त्योहार में अगले त्योहार तक खिसक जाती और मैं उनको किताब देने से बच जाता। लेकिन अब वे अपना पता भेज देते हैं और कहते हैं कि अमेज़न की डिलीवरी आराम से हो जाती है। मेरे लिये बड़ी मुश्किल हो गई है। लेकिन एक बात है कि विकास हो रहा है। पिछली बार मेरे एक स्कूलिया मित्र ने विकास का उदाहरण देते हुए बताया था कि अब सीतामढ़ी में दिल्ली से भी अच्छा मोमोज मिलने लगा है। सुनकर मुझे इस बात में कोई संदेह ही नहीं रह गया कि विकास सफलतापूर्वक वहाँ पहुँच चुका है।

जरुर पढ़ें : ‘द पॉवर ऑफ योर सबकॉन्शियस माइंड’ की खास बातें

पिछले साल तो अपने एक पुराने मित्र से झगड़ा होते होते रह गया। मैंने उससे पूछा कि शहर में अच्छा मूढ़ी-कचरी आजकल कहाँ मिलता है? जवाब में बोला- ‘तुम दिल्ली में चाऊमीन खाओ, मोमोज खाओ, बर्गर खाओ, पिज़्ज़ा खाओ तो ठीक लेकिन यहाँ आने पर मूढ़ी-कचरी खोजो? तुमको क्या लगता है सीतामढ़ी अभी भी पिछड़ा रह गया है। कान खोलकर सुन लो। अब यहाँ कोई मूढ़ी-कचरी नहीं खाता। जो दिल्ली में मिलता है सब इहाँ भी मिलता है और वहाँ से अच्छे मिलता है। विकास में कोनो कमी नहीं रह गया है…’

'क़िस्साग्राम' प्रभात रंजन का उपन्यास
क़िस्साग्राम / प्रभात रंजन

विकास का नाम जगह-जगह सुनाई देता रहा लेकिन रहने पर समझ आया कि ऊपर-ऊपर चमक-दमक पूरा है लेकिन अंदर से गाँव-समाज 1990 के दशक जैसा ही है। उसी दशक जैसा जब दिल्ली से गाँव जाना कम होता गया। सब कुछ वैसे ही है-धर्म-जाति, ऊँच-नीच, अपना-पराया। ज्यादा कुछ बदला नहीं है।

1990 का दशक याद आया तो उसी दशक के एक विधानसभा चुनाव की याद आ गई जिसमें पहली बार जाति पर धर्म भारी पड़ गया था। उन नेताओं के नाम याद आए जिनके नाम अब कोई नहीं लेता। कभी जिनके नाम पर सड़कों के नाम रखे गये थे, चौक के नाम रखे गये थे अब सब नाम या तो देवी-देवताओं के नाम हो चुके हैं या महापुरुषों के। देखा सबको जैसे भूलने की बीमारी सी हो गई थी। कोई कुछ याद भी नहीं करना चाहता था।

‘क़िस्साग्राम’ उपन्यास यहाँ क्लिक कर प्राप्त करें >>

वैसे तो शहर में उस जमाने का मेरा कोई दोस्त मुझे खोजे नहीं मिल रहा था। सब मेरी तरह ही पढ़ाई रोजगार के लिए बाहर गए उसके बाद वहीं के हो गये- दिल्ली के, मुंबई के। संयोग से सपना टी हाउस वाले कामेश्वर से भेंट हो गई। खुश हुआ कि मैं लेखक बन गया था। अख़बार से लेकर फ़ेसबुक तक मेरा लिखा वह पढ़ता रहता था। लेकिन एक बात पर उसने दुख जताया। बोला इतना लिखते हो, दुनिया जहान का लिखते हो। अपने देश के किसी पर तो आज तक कुछ नहीं लिखा तुमने लेकिन किसी मार्केज नामक विदेशी लेखक पर पूरी की पूरी किताब लिख डाली। लेकिन एक बात बताओ। अपने यहाँ की उस कहानी को कौन लिखेगा जिसको सब भूलते जा रहे हैं। मुझे लगा जैसे उपन्यास का सूत्र मिल गया।

जिस कहानी को मैं बरसों से लिखने की कोशिश कर रहा था वह पूरी हो गई। क़िस्से-कहानियों में कुछ भी नया नहीं होता है। बस सुनाने वाले नये होते हैं। मैंने आगे के पन्नों पर जो कुछ भी लिखा है वह सब क़िस्से हैं, कहानियाँ हैं। सुनने-सुनाने वालों के बीच में मैं भी था इसलिए मैंने लिख दिया। याद करने में भूलने की बड़ी भूमिका होती है। लिखने वाला वही याद करता है जो उसके अपने सोच की सुविधा होती है। क़िस्से-कहानियों में सबसे बड़ी बात यह होती है कि उनका कोई अपना देस नहीं होता। उसी तरह इस उपन्यास की कहानियों का अगर कोई लोक है तो वह लेखक का अपना कल्पना लोक है।

अन्हारी नामक किसी गाँव को न मैं जानता हूँ न उन घटनाओं का मैं साक्षी रहा। लेकिन शुक्र है क़िस्से-कहानियों ने मुझे उनसे जोड़ दिया। सुना था पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में और आज जब लिखने बैठा तो लगा जैसे आज के समय की ही कहानी हो।

जो भी बना जैसी भी बना क़िस्साग्राम आपके सामने है। क़िस्से पसंद आएँ तो सुनाने वालों को धन्यवाद कहिएगा। कमी लगे तो वह मेरे लेखन की सीमा होगी। सुना बहुत लिख कम पाया।

-प्रभात रंजन
(लेखक और जानकी पुल के मॉडरेटर)

क़िस्साग्राम
लेखक : प्रभात रंजन
पृष्ठ : 112
प्रकाशक : राजपाल एण्ड सन्ज़
किताब का लिंक : https://amzn.to/3xdobnO