अरुण आनंद द्वारा लिखित ‘तालिबान: अफगानिस्तान में युद्ध और इसलाम’ बताती है कि कैसे कभी अस्त-व्यस्त माना जाने वाला तालिबान समूह 2021 में तूफानी वापसी करके दुनिया को चकित कर देता है। यह किताब तालिबान की उत्पत्ति, उसके शक्तिशाली संगठन के रूप में उदय और उसकी जीत का विश्लेषण करती है। लेखक समझाते हैं कि अरबों डॉलर और दो दशक लंबे सैन्य अभियान के बावजूद, दुनिया की सबसे कुशल सेनाओं वाले देशों को तालिबान के सामने झुककर शर्मनाक वापसी क्यों करनी पड़ी। पुस्तक पाकिस्तान और उसकी ख़ुफ़िया एजेंसी ISI की दोहरी भूमिका के साथ-साथ पश्चिमी ताकतों की उन रणनीतिक भूलों को भी उजागर करती है, जिसके कारण वे अपने ही जाल में फँस गए।

‘तालिबान : अफगानिस्तान में युद्ध और इसलाम’ एक चौंकाने वाली जीत का लेखा-जोखा है
अगस्त 2021… पूरी दुनिया ने देखा कि कैसे तालिबान नामक एक संगठन ने, जिसे कभी पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के मदरसों से निकले लड़कों का अस्त-व्यस्त समूह माना जाता था, सिर्फ़ कुछ ही हफ़्तों में अफ़गानिस्तान की सत्ता पर फिर से कब्ज़ा कर लिया। यह घटना किसी सदमे से कम नहीं थी।
जिस तालिबान को 2001 में दुनिया की सबसे आधुनिक और कुशल सेनाओं ने आसानी से कुचल दिया था, उसने 20 साल बाद इतिहास को पलट दिया। यह पुस्तक उसी ऐतिहासिक और राजनीतिक पहेली को सुलझाने का प्रयास करती है।
‘तालिबान : अफगानिस्तान में युद्ध और इसलाम’ किताब सिर्फ़ तालिबान के इतिहास पर नहीं है, बल्कि यह उस सबसे बड़ी हार की कहानी है जो आधुनिक सैन्य इतिहास में दर्ज़ की गई। यह बताती है कि आखिर क्यों अरबों डॉलर खर्च करने और लगभग दो दशक लंबा सैन्य अभियान चलाने के बावजूद, दुनिया के सबसे शक्तिशाली देशों को तालिबान के सामने झुकना पड़ा और उन्हें शर्मनाक तरीके से अफगानिस्तान से बाहर निकलना पड़ा।

तालिबान की जड़ें और उनकी अटूट वापसी
पुस्तक ‘तालिबान : अफगानिस्तान में युद्ध और इसलाम’ की शुरुआत तालिबान की उत्पत्ति से होती है। यह गहराई से समझाती है कि यह समूह कैसे धार्मिक स्कूलों (मदरसों) के विचारों से पनपा और कैसे इसने अफ़गानिस्तान के राजनीतिक शून्य को भरा। लेखक बताते हैं कि तालिबान को हराना आसान था, लेकिन उसकी विचारधारा को जड़ से मिटाना नामुमकिन।
2001 में हार के बाद भी यह संगठन ख़त्म नहीं हुआ। यह कैसे ज़मीन के नीचे रहकर फलता-फूलता रहा, कैसे इसने स्थानीय लोगों का विश्वास दोबारा हासिल किया और कैसे इसने विश्व की सबसे बड़ी सेनाओं द्वारा इस्तेमाल की गई उन्नत तकनीक और हथियारों के सामने अपनी पुरानी युद्ध नीतियों को सफलतापूर्वक जीवित रखा, यह सब इस पुस्तक का मुख्य हिस्सा है। यह हमें तालिबान की अटूट लगन और ज़बरदस्त वापसी की दास्तान बताती है।
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1990 के दशक में पहली बार तालिबान का उदय और फिर वर्तमान शताब्दी के पहले दशक में इसका फिर से उभरना दुनिया के अधिकांश लोगों के लिए एक विचित्र घटना है। किसी ने भी इसकी उम्मीद नहीं की होगी कि वर्ष 2001 में कुचले जाने के बाद यह इतनी मजबूती से वापसी करेगा कि आखिर में पश्चिमी ताकतों को जमीन छोड़नी पड़ेगी और अफगानिस्तान से बाहर निकलना पड़ेगा। सबसे महत्त्वपूर्ण तो सन् 2021 में जिस प्रकार तालिबान ने तूफानी हमले में अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा जमाया, उसने शीर्ष सैन्य रणनीतिकारों और आतंकवाद-विरोधी विशेषज्ञों को भी चकित कर दिया। बहुत से लोग यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि जिन लोगों ने 2001 में तालिबान पर बमबारी की, उन्होंने दो दशक से भी कम समय में उसके साथ समझौता करने का फैसला क्यों किया?
ऐसे कई प्रश्न हैं, जिनके उत्तर की आवश्यकता है। लेकिन ऐसा लगता है कि तालिबान के संबंध में वे उस सार्वजनिक विमर्श में छिपे हैं, जो अतिशयोक्ति और घिसी-पिटी धारणाओं पर आधारित हैं। यह पुस्तक उस कमी को पूरा करने का एक प्रयास है। यह उन प्रश्नों के साक्ष्य-आधारित उत्तर देने का प्रयास है, जो सामान्य रूप से पूछे जाते हैं। लेकिन विशेषज्ञों, राजनयिकों और सत्ताधारी संगठनों की ओर से उनके उत्तर शायद ही दिए जाते हैं। ये प्रश्न हैं- 'तालिबान का जन्म कैसे हुआ?' 'उसे धन कौन उपलब्ध कराता है?', 'वह किस विचारधारा का पालन करता है?', 'कैसे नाटो (NATO) और अमेरिका ने अफगानिस्तान में गलती की?', 'पाकिस्तान और उसकी खुफिया एजेंसी आई. एस. आई. की इसमें क्या भूमिका है?', 'बाकी दुनिया ने तालिबान को मान्यता क्यों दी, क्यों बातचीत की और हमारा कदम क्या होना चाहिए?'
पाकिस्तान और ISI की दोहरी भूमिका
इस पुस्तक का एक सबसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील हिस्सा पाकिस्तान और उसकी शक्तिशाली ख़ुफ़िया एजेंसी आई.एस.आई. की भूमिका पर प्रकाश डालता है। लेखक साफ़ तौर पर बताते हैं कि कैसे पाकिस्तान ने एक तरफ अमेरिका और पश्चिमी देशों से पैसा और मदद ली, वहीं दूसरी तरफ उसने गुप्त रूप से तालिबान को सुरक्षित पनाहगाह, प्रशिक्षण और साज़ो-सामान देकर उनका पोषण किया।
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अरुण आनंद की किताब ‘तालिबान : अफगानिस्तान में युद्ध और इसलाम’ इस दोहरे खेल की परतें खोलती है। यह बताती है कि कैसे पाकिस्तान की नीति ने तालिबान को वह ऑक्सीजन दी जिसके सहारे वह 20 साल तक लड़ाई में टिका रहा और अंततः जीत हासिल की। यह विश्लेषण उन सभी के लिए ज़रूरी है जो दक्षिण एशिया की जटिल राजनीति को समझना चाहते हैं।

पश्चिमी शक्तियों की सबसे बड़ी चूक
‘तालिबान : अफगानिस्तान में युद्ध और इसलाम’ का सबसे तीखा और आँखें खोलने वाला विश्लेषण पश्चिमी ताकतों की रणनीति पर केंद्रित है। लेखक स्पष्ट करते हैं कि दीवार पर लिखी इबारत को न पढ़कर पश्चिमी शक्तियाँ कैसे अपने ही जाल में फँस गईं।
अरबों डॉलर ख़र्च करने के बावजूद, पश्चिमी देशों ने अफ़गानिस्तान की ज़मीनी सच्चाई को समझने में बड़ी भूल की। उन्होंने एक ऐसी अफ़गान सेना और सरकार बनाने की कोशिश की जो पश्चिमी मूल्यों पर आधारित थी, न कि अफ़गानिस्तान की संस्कृति और इतिहास पर। उन्होंने यह मानने से इनकार कर दिया कि तालिबान की जड़ें अभी भी मज़बूत थीं और ISI का खेल जारी था।
पुस्तक बताती है कि अफ़गानिस्तान में लोकतंत्र स्थापित करने का उनका मक़सद, एक सैन्य समाधान खोजने की उनकी कोशिशों और स्थानीय लोगों के दिल जीतने में उनकी नाकामी ने उन्हें धीरे-धीरे दलदल में धकेल दिया। जब तक उन्हें अपनी ग़लती का एहसास हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
'तालिबान : अफगानिस्तान में युद्ध और इसलाम' सिर्फ़ इतिहास या राजनीति की किताब नहीं है। यह एक महत्वपूर्ण चेतावनी है कि सैन्य बल हमेशा जीत की गारंटी नहीं होते। यह कूटनीति, ख़ुफ़िया एजेंसियों के गुप्त खेल और ज़मीनी हकीकत को अनदेखा करने के ख़तरों के बारे में एक गहरी सीख देती है।
लेखक अरुण आनंद ने अपनी गहरी समझ और शोध के साथ इस विषय को प्रस्तुत किया है जिससे यह हर पाठक के लिए सुलभ और विचारणीय बन जाती है।
‘तालिबान : अफगानिस्तान में युद्ध और इसलाम’ किताब पढ़ने के बाद आप महसूस करेंगे कि अफ़गानिस्तान की कहानी 2021 में ख़त्म नहीं हुई है बल्कि एक नया अध्याय शुरू हुआ है-एक ऐसा अध्याय जिसकी नींव 20 साल पहले हुए ग़लत फैसलों में छिपी थी।
तालिबान : अफगानिस्तान में युद्ध और इसलाम
अरुण आनंद
पृष्ठ : 272
प्रभात प्रकाशन
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