हिंदुत्व पॉप : भारत में हिंदू राष्ट्र की विचारधारा अब एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन चुकी है। यह बदलाव केवल राजनीतिक हार-जीत पर निर्भर नहीं करता, बल्कि पॉप कल्चर और सोशल मीडिया को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करके धीमी मगर सधी गति से आम लोगों की सोच में दाखिल किया जा रहा है। कविता, संगीत और किताबों में लपेटकर परोसा गया यह प्रोपेगेंडा लोगों की नसों में घुलना शुरू कर देता है, जिससे उनमें गुस्से और नफरत का जुनून पैदा होता है। यह प्रक्रिया रोज़मर्रा की सांप्रदायिकता को बढ़ावा देती है और कथित दुश्मनों के प्रति उत्साह और डर को बढ़ाता है। लेखक कुणाल पुरोहित इस खतरे को समझने और उस पर ध्यान केंद्रित करने का आह्वान करते हैं। ‘हिंदुत्व पॉप’ किताब को हार्पर हिन्दी ने प्रकाशित किया है। अनुवाद केतन मिश्रा का है।

पॉपुलर कल्चर को यदि हमें परिभाषित करना हो तो इसका अर्थ होगा कला और संस्कृति का एक ऐसा रूप जो समाज के एक बड़े वर्ग के बीच खासा लोकप्रिय हो। इसकी पहुंच और चहुंओर मौजूदगी के चलते उन सभी समूहों के लिए ये ख़ास महत्व रखता है, जो समाज के एक बड़े तबके तक पहुंचना चाहते हैं। आर्थिक लाभ कमाने के इरादे से बाज़ार में उतरने वाली कंपनियां और राजनीतिक पार्टियां, सभी इसका भरपूर सहारा लेते हैं।
20वीं शताब्दी के दौरान राजनीतिक प्रोपेगैंडा ने अक्सर पॉप कल्चर का मुखौटा पहने रखा।
उदाहरण के तौर पर, कितने ही दशकों से संयुक्त राष्ट्र की सरकार ने पॉप कल्चर को बढ़ावा देते हुए उसके सहारे अपनी घरेलू और विदेश से सम्बंधित नीतियों को आगे बढ़ाया है।
इसके ज़रिये उसने हर प्रकार के क्रियाकलापों के बीच, जनता की राय को अपने पक्ष में खींचते हुए अपनी एक स्वस्थ छवि बनाए रखी है। मसलन, जब अमेरिकी सरकार दूसरे विश्व युद्ध में कदम रखने के बारे में सोच रही थी, तब 1940 में हुए एक जनमत के ज़रिये मालूम पड़ा कि उनमें से मात्र 35 फ़ीसदी अमेरिकी जनता ही ये चाहती थी कि अमेरिका उस युद्ध में हिस्सा ले। इसके बाद वहां की सरकार ने बड़े करीने से ऐसी रणनीति बनाई जिसके तहत उन्होंने पॉपुलर कल्चर के ऐसे कॉन्टेंट परोसे कि लोगों की राय बदलने लगी और वो युद्ध में हिस्सा लेने के पक्षधर हो गए। इस क्रम में एक बहुत बड़ा कदम फ़िल्मों के ज़रिये उठाया गया। अमेरिकी सरकार ने हॉलीवुड में एक संपर्क कार्यालय खोला और वॉल्ट डिज़्नी और वॉर्नर ब्रदर्स सरीखे नामों को अधिकारिक रूप से अनुबंधित करते हुए ऐसी फ़िल्में बनाने को कहा जो हल्के लहजे में लोगों के भीतर युद्ध में हिस्सा लेने के विचार को स्थापित करती चलें। इस रणनीति ने असर दिखाया और संयुक्त राष्ट्र विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों का साथ देने को उतर पड़ा।
इस बात से आपको हैरान नहीं होना चाहिए कि तानाशाहों और फ़ासीवादी नेताओं ने पॉपुलर कल्चर को अपना राजनीतिक एजेंडा फैलाने का ज़बरदस्त ज़रिया माना है। प्रोपेगेंडा को पॉप कल्चर का जामा पहनाकर पेश किया जाए तो वो ज़हर को भी एक मिठास के साथ लोगों तक पहुंचाने की क़ाबिलियत रखता है। नफ़रत और गुस्से को यूं हल्के-फुल्के तरीके से परोसा जाता है, जिससे लोग उसे बिना विरोध के, बड़ी आसानी से अपना लेते हैं।
अमेरिकियों द्वारा पॉप कल्चर को राजनीतिक मकसद के लिए इस्तेमाल करने से पहले, जर्मनी में नाज़ी और इटली में फासीवादी नेताओं ने इस रणनीति को सालों तक तराशा और परखा। 1930 के दशक में जर्मनी की सत्ता हाथ में आते ही, नाज़ी पार्टी ने सांस्कृतिक उत्पादन को पूरी तरह से अपने नियंत्रण में कर लिया था सरकार के आलोचकों और यहूदी लेखकों की किताबें जला दी गयीं और एक नया 'राइख कल्चर चेम्बर' बनाया गया, जो फ़िल्म, म्यूज़िक, थियेटर, प्रेस, साहित्य, ललित कला और रेडियो जैसे तमाम क्षेत्रों पर पार्टी का नियंत्रण सुनिश्चित करता था।

इटली में, फ़ासीवादियों ने थियेटर प्रोडक्शन को फ़ंड किया, लेकिन उन्होंने इस बात का पूरा ध्यान रखा कि ये नाटक ‘आस्था, देशभक्ति… और आत्मबलिदान का भाव’ जैसे उन्हीं आदर्शों और भावनाओं को दिखाएं, जिन्हें वो बढ़ावा देना चाहते थे। सरकार ने इस तरह के थियेटर को आगे बढ़ाने के लिए पूरी ताक़त झोंक दी। यहां तक कि थियेटर्स को सब्सिडी दी गई ताकि टिकट सस्ते हो सकें और ज़्यादा लोग इन नाटकों का मुखौटा पहने प्रोपेगेंडा को देखने आ सकें। फ़ासीवादियों ने उन फ़िल्मों की फ़ंडिंग भी की, जो उनकी सोच से मेल खाती थीं।
हाल के वर्षों में, चाहे वो इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन अल-कायदा हो या धुर- दक्षिणपंथी श्वेत राष्ट्रवादी समूह, हर तरह के चरमपंथियों ने अपनी-अपनी वैकल्पिक सांस्कृतिक शैलियों को गढ़ने पर ज़ोर दिया है। ऐसा करने के ज़रिए ये समूह अपनी विचारधारा को ऐसे ढंग से फैलाने में कामयाब रहे हैं कि उसकी पहुंच एक बहुत बड़े तबके तक जाती है। इस तरह से चरमपंथियों के विचार, उनका संदेश सीमित दायरे से बाहर पहुंचता है और इस तरह से वो नए लोगों को भी अपनी ओर खींचने में कामयाब होते हैं।
दुनिया भर में ऐसा बहुत सारा साहित्य है जो पॉपुलर कल्चर के इस प्रकार के भ्रष्टीकरण की कहानी बयान करता है। सिर्फ़ अकादमिक साहित्य ही नहीं, कई किताबों, ख़बरों और डॉक्युमेंट्रीज़ के ज़रिये भी ये जानकारी मिलती है कि इन कट्टरवादी संगठनों ने अपनी विचारधारा को बढ़ाने के लिए क्या-क्या किया। वहीं दूसरी ओर, पॉपुलर कल्चर का हिंदू दक्षिणपंथी समूहों ने कैसे इस्तेमाल किया है, इसकी जांच शुरू भी नहीं हुई है। मैं तो ये भी कह सकता हूं कि ये मुद्दा असल में अभी ठीक से समझा भी नहीं गया है।
ये किताब कोशिश करेगी कि इस क्रम में ये नींव का पहला पत्थर रखे।
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एक ऐसे समय में, जब विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में हिंदू राष्ट्र सबसे बड़ी राजनीतिक विचारधारा बन चुका है, इस विषय को जानना-समझना और भी ज़रूरी हो जाता है।
अपने यात्राओं के दौरान, मैंने पाया कि आम जन जिस तरह से अपनी वर्तमान स्थिति, अपने भूतकाल और भविष्य की रूपरेखा को सामने रख रहे हैं, उसमें हाल-फिलहाल में एक बहुत बड़ा बदलाव आया है। लोगों की पहचान, जो जटिल होने के साथ-साथ कई परतों को ओढ़े हुआ करती थी, उसे घटाकर सिर्फ उनके धर्म तक सीमित कर दिया गया है। कई रस और रूप समेटकर चली आ रहीं परंपराओं और संबंधों ने दम तोड़ना शुरू कर दिया था। सांप्रदायिकता आम बात हो चुकी थी और दूसरे धर्मों के प्रति नफरत रखने का भाव स्वीकार्य हो चला था।
भारतीय जनता पार्टी, उसकी जननी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े बाकी सभी हिंदुत्ववादी संगठनों ने इस बात को मुकम्मल करने का प्रण ले रखा था कि ये बदलाव राजनीतिक हार-जीत पर कतई निर्भर नहीं करेगा। मतलब, काम होकर रहेगा, भाजपा सत्ता में हो या न हो।
ये नया सामाजिक ढाँचा एक रात में बनकर तैयार नहीं हो गया। हिंदू दक्षिणपंथ को इसमें कामयाबी दिलाने के लिए लोगों की एक पूरी खेप है जिसकी संरचनात्मक इकाई वो समर्पित कार्यकर्ता हैं जो अनवरत अपनी जिम्मेदारियां निभा रहे हैं। कुछ कार्यकर्ताओं को जिम्मेदारियाँ सौंपी गई हैं, तो कुछ ने इसे खुद ही अपनी मर्जी से उठाया है। इन जिम्मेदारियों को उठाने की वजह मिशन के प्रति गहरा समर्पण भी हो सकती है और अपने दुश्मनों के लिए ज़हरीली नफरत भी। राजनीति के वो दिन लदते हुए दिख रहे हैं जब कार्यकर्ता घर-घर जाकर प्रचार करते थे और सड़कों पर उतरते थे। इसकी बजाय, ये लोग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर हावी हैं। वहां विरोध की हर आवाज़ को दबाकर, आलोचकों को निशाना बनाकर और पार्टी के पक्ष में माहौल बनाकर वो अपने मकसद को अंजाम दे रहे हैं।
यहीं पर, इस लगातार चल रही नैरेटिव की लड़ाई में, पॉपुलर कल्चर एक और हथियार बन चुका है। कौन क्या है, क्या था, क्या कर सकता है, क्या नहीं किया, आदि-आदि बातों को लोगों तक पहुँचाने के क्रम में इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है।

जब प्रोपेगेंडा को कविता, संगीत और किताबों जैसी सांस्कृतिक चीज़ों में लपेटकर परोसा जाता है, तो उसका असर सीधी-सीधी राजनीतिक बातों से कहीं ज़्यादा गहरा होता है। क्योंकि ये तरीका छिपा हुआ होता है, चुपचाप लोगों तक पहुँचता है और इससे पहले कि किसी को समझ में आए, वो उनके दिमागों और उनकी सोच में घर बना लेता है और फिर उनके विचारों को एक नया स्वरूप देने लगता है।
जब प्रोपेगेंडा को कविता, संगीत और किताबों जैसी सांस्कृतिक चीज़ों में लपेटकर परोसा जाता है, तो उसका असर सीधी-सीधी राजनीतिक बातों से कहीं ज़्यादा गहरा होता है। क्योंकि ये तरीका छिपा हुआ होता है, चुपचाप लोगों तक पहुँचता है और इससे पहले कि किसी को समझ में आए, वो उनके दिमागों और उनकी सोच में घर बना लेता है और फिर उनके विचारों को एक नया स्वरूप देने लगता है।
कदमों को थिरकाने वाली धुन और मन में अटक जाने वाली ताल में पगा गाना, हो सकता है कि आपको भारत के इस्लामीकरण के बारे में चेता रहा हो। हो सकता है कि एक किताब, जो भारत के विभाजन के पीछे के ‘सत्य’ को आप तक पहुँचाने का दावा करती हो, में तथ्यों की बजाय कांस्पिरेसी थ्योरीज़, सुबूतों की जगह पूर्वाग्रह इस तरह से मिलेंगे कि वो सभी मिलकर हिंदू राष्ट्रवाद के मूल विचारों को हवा दे रहे होंगे।
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पॉप कल्चर में घुले प्रोपेगेंडा के इतना प्रभावशाली होने की मुख्य वजह है कि ये हर वक्त अपने शिकार के बेहद करीब रहता है। जिसे शिकार होना है, उसे न ही किसी सार्वजनिक राजनीतिक मीटिंग तक पहुँचने में बहुत ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती है और न ही किसी उद्वेलित भाव से दिए गए भाषण को सुनने में कोई खास जद्दोजहद करनी पड़ती है। शिकार में बस मनोरंजन की चाह होनी चाहिए। उसे बस रोज़मर्रा के कामों से कुछ वक़्त चुराने की जुर्रत उठानी होती है। कई बार ये काम बस कुछ क्लिक में हो जाता है। यहीं से उसके जीवन में प्रोपेगेंडा वाले पॉप-कल्चर का प्रवेश होता है। वो अपने शिकार को, आनंदित करने का झाँसा देते हुए, एक मुलायम जकड़न में फाँस लेता है। यहीं से, पल-पल, ये प्रोपेगेंडा उसकी नसों में घुलना शुरू कर देता है। फिर हर दोहराव के साथ ये शिकार के भीतर ऐसा जुनून पैदा करना शुरू कर देता है जिससे वो पूरी तरह से अनभिज्ञ था। ये घृणा और गुस्से से भरा जुनून होता है जिसमें दूसरों को शक भरी निगाहों से देखना निहित होता है।
जुनून का ये भाव अंदर ही अंदर बना रहता है लेकिन सही वक्त का इंतज़ार कर रहा होता है। और फिर, एक राम नवमी की शोभायात्रा निकलती है, जिसमें पुरुषों की एक उत्साही भीड़ होती है और जो सभी को एक जैसी भी सोच रखते हैं या किसी दूसरे धर्म से आने वाले पड़ोसी से किसी का कोई झगड़ा हो जाता है और जुनून का ये भाव निकलकर सामने आ जाता है।
हेट क्राइम के कालचक्र के बारे में जानकारी जुटाने के दौरान मुझे कुछ-कुछ समझ में आया कि ये समय के साथ, एक धीमी मगर सधी हुई गति के साथ कैसे बढ़ा।
मेरे जैसे मीडिया के और भी साथियों ने इन हेट क्राइम्स को कवर किया है जहाँ अचानक हुई किसी घटना ने हिंसा को जन्म दे दिया। सच ये है कि इसमें कोई सच है ही नहीं। आपको इन अचानक हुई हिंसाओं की जड़ में रोज़ घुल रही सांप्रदायिकता दिखाई देगी। हिन्दुत्व पॉप कल्चर को इसी तरह से बनाकर खड़ा किया गया है कि वो रोज़मर्रा की इस सांप्रदायिकता को और हवा दे सके।
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संगीत, कविताओं और किताबों का इस्तेमाल करते हुए लोगों में कट्टरता भरी जाती है। ये काम बेहद धीमी मगर सधी हुई रफ़्तार से होता है, जैसे बूंद-बूंद करके बाल्टी भरी जाती है और फिर पानी उससे बाहर भी गिरने लगता है। दंगे, भड़काऊ भाषण, सार्वजनिक रैलियां वगैरह पुरानी बातें हो चली हैं। इनमें वक्त खपता है, पैसा लगता है और माचिस लगाने वाले को बदनामी या कानूनी कार्रवाई का ख़तरा रहता है। ऐसी घटनाएँ उस वैश्विक नेता की छवि को भी दाग लगाती हैं, जिसे बनाने के लिए मोदी ने पूरी ताक़त के साथ काम किया है।
हिंदुत्व पॉप कई दिक्कतों से निजात दिलाता है। ये विरोधियों और अल्पसंख्यक समूहों के ख़िलाफ़ नफ़रत और गुस्से को दिन-ब-दिन इस अंदाज़ से बढ़ाता है कि उसे भड़काऊ भाषण वाली रैली या दंगे जैसी किसी घटना से जोड़ा भी नहीं जा सकता।
दूसरी ओर, जब भी इसके उत्पाद का उपभोग किया जाता है, जब भी गाने सुने जाते हैं, कवितापाठ होता है या किताब पढ़ी जाती है, हिंदुत्ववादी विचारों को और ऊर्जा मिलती है, कथित दुश्मनों के प्रति उत्साह और डर को बढ़ावा मिलता है।
समय आ गया है कि हम इस धीमी गति से बढ़ने वाले, रोज़मर्रा की सांप्रदायिकता पर ध्यान देना शुरू कर दें। समय आ गया है कि हम तेज़ी से बदल रहे भारत को समझना शुरू कर दें।
-कुणाल पुरोहित.
हिंदुत्व पॉप : एक छिपी हुई दुनिया
कुणाल पुरोहित
पृष्ठ : 306
हार्पर हिन्दी
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