कथाकार भगवानदास मोरवाल हिन्दी साहित्य जगत में अपने विषयों की ताजगी और समाज की नब्ज पर हाथ रखने वाले कथाकार के रूप में जाने जाते हैं। ‘दण्ड प्रहार’ उनका बारहवाँ उपन्यास है। यह केवल एक साहित्यिक रचना नहीं कही जा सकती, बल्कि समकालीन भारतीय लोकमन के भीतर चल रहे गहन वैचारिक मंथन का एक साहसिक और निर्मम आख्यान है। यह उपन्यास भारतीय समाज के उस अंतर्विरोध को खोलकर रखता है जहाँ एक ओर देश अपनी साझी विरासत का गुणगान करता है वहीं दूसरी ओर एक विशेष विचारधारा और संस्कृति के नाम पर लोकमन को गहरे घाव दिए जा रहे हैं।

यह उपन्यास साल 1925 में स्थापित एक ऐसे प्रभावशाली संगठन की ‘नित्य कथा’ प्रस्तुत करता है जिसने लगभग सौ वर्षों से भारतीय समाज पर अपनी छाप छोड़ी है। भगवानदास मोरवाल बड़ी बेबाकी और रचनात्मक ईमानदारी के साथ इस संगठन के कार्यकलापों की जाँच करते हैं। वह दिखाते हैं कि किस तरह हिन्दुत्व, संस्कृति और राष्ट्रवाद के लुभावने आवरण के पीछे मनगढ़ंत और ऐतिहासिक रूप से अविश्वसनीय क़िस्सों को गढ़ा जाता है। इन गढ़ी हुई कहानियों का समावेशी भारतीय समाज के ताने-बाने से दूर-दूर तक कोई वास्तविक नाता नहीं है। लेखक का मुख्य उद्देश्य इन ‘स्वयंभू सांस्कृतिक संगठनों’ द्वारा किए जा रहे वैचारिक प्रहारों को समझना और समाज के सामने रखना है जिसने भारतीय लोकमन और उसके सांस्कृतिक वैशिष्ट्य को गहरी चोट पहुँचाई है।
‘दण्ड प्रहार’ का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू इतिहास और राष्ट्र नायकों के प्रति उसका तीखा और आलोचनात्मक दृष्टिकोण है। उपन्यास उन नायकों की छवियों को बदरंग करने की चेष्टाओं का निर्मम आख्यान है जिन्होंने देश को पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त कराया था। यह आज के दौर की विडंबना है कि जिन विभूतियों ने अपने रक्त से स्वतंत्रता की नींव रखी, उनकी विरासत को संदेह के घेरे में लाया जा रहा है। मोरवाल का उपन्यास इस बात का दस्तावेज़ है कि कैसे अतीत को वर्तमान की ज़रूरतों के हिसाब से तोड़ा-मरोड़ा जाता है और कैसे सत्ता के नए समीकरणों के अनुरूप इतिहास का पुनर्लेखन किया जाता है।
भगवानदास मोरवाल का गहन विश्लेषण
मोरवाल यहाँ केवल इतिहास का वर्णन नहीं कर रहे हैं बल्कि वह उस संगठन की विचार यात्रा का विश्लेषण करते हैं जो हिन्दू राष्ट्र का एक ऐसा सपना दिखाता है जिसकी भविष्य में पूरे होने की कोई सम्भावना नहीं है। यह एक ऐसा सपना है जो यथार्थ की ज़मीन से कटा हुआ है और केवल भावनात्मक आवेश पर टिका है। लेखक यह स्पष्ट करते हैं कि यह उपन्यास केवल किसी संगठन का इतिहास नहीं है, बल्कि उस संगठन की वैचारिक मशीनरी का पोस्टमार्टम है जो भारतीय उपमहाद्वीप में तेज़ी से बँटती सांस्कृतिक दुर्बलताओं को परिभाषित करती है।
उपन्यास का वैचारिक आधार अत्यंत ठोस और समकालीन है। यह भारतीय लोकमन में असहिष्णुता, आपसी संघर्ष और वैमनस्य के बढ़ते दायरे का बारीक विश्लेषण करता है। पिछले पाँच दशकों के दौरान जिस तरह से धार्मिक, जातीय और ऐतिहासिक विरासत को संदेह के घेरे में लाने के प्रयास हुए हैं उस आलोक में यह उपन्यास एक बेहतर समझ पैदा करता है। यह मोरवाल की गहरी अंतर्दृष्टि है कि वह सभ्यतागत संघर्षों से उपजी इन दुर्बलताओं को बहुलतावादी मानसिकता के लिए एक गंभीर खतरा मानते हैं।
‘दण्ड प्रहार’ उन मूलभूत प्रश्नों से मुठभेड़ करता है जो आज भारत जैसे विशाल और विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक विश्वासों को सहेजकर रखने वाले देश के लिए सबसे अधिक प्रासंगिक हैं। यह सवाल बार-बार उभरता है कि एक समाज के मूलभूत प्रश्नों का आधार उसके वैचारिक और आर्थिक सरोकार होने चाहिए या धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सभ्यतागत संघर्षों से उपजे आपसी मतभेद? मोरवाल इस बात पर ज़ोर देते हैं कि भारत जैसे देश के लिए जिसने अपनी साझी विरासत और सामूहिक विवेक को हमेशा प्राथमिकता दी है, इन सवालों का उत्तर राजनैतिक विमर्शों के भोथरे औज़ारों से नहीं बल्कि केवल सामूहिक विवेक में ही ढूँढ़ा जा सकता है।
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उपन्यास का अंतिम केंद्रीय विषय आज के भारत की विरोधाभासी तस्वीर है। एक तरफ़ जहाँ देश अपनी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक ‘आंतरिक दुश्वारियों’ से जूझ रहा है वहीं दूसरी ओर वह संगठन अपनी स्थापना के सौ साल पूरे होने का ‘जश्न’ मना रहा है। मोरवाल की नज़र में यह जश्न एक बड़े वर्ग के ‘अनजाने भय’ पर टिका हुआ है।

आज देश का एक बड़ा वर्ग एक ऐसे अनजाने डर के चलते सहमा हुआ है जिसके सूत्र आसानी से इस उपन्यास में खोजे जा सकते हैं। यह उपन्यास उस भय की तह तक जाकर उसे परिभाषित करने का साहस दिखाता है। यह बताता है कि राष्ट्रवाद और संस्कृति के नाम पर जो वैचारिक दण्ड प्रहार पिछले सौ सालों से किए जा रहे हैं, उनका अंतिम परिणाम समरस समाज की स्थापना नहीं, बल्कि नागरिक स्वतंत्रता और आत्मविश्वास का क्षरण है।
भगवानदास मोरवाल का उपन्यास ‘दण्ड प्रहार’ एक बेहतरीन और सामयिक उपन्यास है। यह हमें केवल इतिहास की विकृतियों से ही आगाह नहीं करता, बल्कि हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि हम किस तरह की सभ्यता और समाज का निर्माण कर रहे हैं। यह मोरवालजी की एक महत्वपूर्ण कृति है जो हमें वैचारिक सुस्ती से जगाकर सामूहिक विवेक की शक्ति पर भरोसा करने का आह्वान करती है। यह उन सभी पाठकों के लिए खास हो सकता है जो समावेशी भारत के भविष्य को लेकर चिंतित हैं और जो आज की राजनीतिक तथा सांस्कृतिक विमर्शों की जटिलताओं को समझना चाहते हैं।
दण्ड प्रहार
भगवानदास मोरवाल
पृष्ठ : 504
वाणी प्रकाशन
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