हिंदी पल्प साहित्य की दुनिया उतनी ही रंगीन और रहस्यमयी है जितनी रोमांचक। यशवंत व्यास की पुस्तक ‘बेगमपुल से दरियागंज’ (Begampul se Daryaganj) इसी विशिष्ट संसार की परतें खोलती है और हमें उन गलियों में ले जाती है जहाँ सस्ते कागज़ों पर छपी कहानियों में करोड़ों पाठक अपने सपनों, रोमांच और जिज्ञासाओं की पूर्ति किया करते थे।

यह किताब उन पाठकों के लिए किसी खजाने से कम नहीं है जिन्होंने कभी स्कूल की किताबों में छिपाकर पल्प उपन्यास पढ़े, या रेलवे स्टेशनों और सड़क किनारे की दुकानों से उन्हें खरीदकर रात रात भर डूबे रहे। किताब हमें याद दिलाती है कि यह साहित्य मात्र मनोरंजन भर नहीं था, बल्कि उस दौर के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का आईना भी था। जासूसों की चौकस निगाहें, खलनायकों की चालाकियां और आशिकों का बेताबी भरा समर्पण – ये सब मिलकर लोकप्रिय संस्कृति के धड़कते हुए अध्याय बन गये थे।
यशवंत जी अपनी पत्रकारिता की गहराई और शोधपरक दृष्टि से पल्प साहित्य के कई आयाम सामने रखते हैं। वे बताते हैं कि मेरठ, वाराणसी और इलाहाबाद जैसे शहर कैसे इस जनप्रिय साहित्य के गढ़ बने। ‘बेगमपुल से दरियागंज’ शीर्षक ही अपने आप में प्रतीकात्मक है – यह पल्प की उस यात्रा का संकेत है, जो छोटे कस्बों और गलियों से चलकर दिल्ली के साहित्यिक-व्यावसायिक केंद्र तक पहुँची और पाठकों की पीढ़ियाँ गढ़ी।

इस पुस्तक की सबसे बड़ी खूबी है कि यह केवल उपन्यासों और कहानियों के किस्से नहीं सुनाती, बल्कि उनके पीछे खड़े समाज, बाज़ार और लेखकों की संघर्ष-कथाओं को भी सामने लाती है। व्यास अंतर्राष्ट्रीय प्रभावों, भारतीय भाषाओं की साझी विरासत और मोहल्लों में पनपती पाठकीय संस्कृति के उदाहरणों से साहित्य और जीवन के रिश्तों को जीवंत बना देते हैं।
पुस्तक में सुरेन्द्र मोहन पाठक, वेदप्रकाश शर्मा, इब्ने सफी, परशुराम शर्मा, दत्त भारती, गुलशन नंदा, रानू, एस. हुसैन ज़ैदी जैसे लेखकों के किस्से-कहानियाँ और बातचीत शामिल है।


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किताब पढ़ते हुए साफ़ महसूस होता है कि पल्प साहित्य को गंभीर साहित्यिक विमर्श से हमेशा अलग रखकर देखा गया, लेकिन यही ‘हाशिये का साहित्य’ असल में जनता के दिलों की धड़कन था। यशवंत व्यास का यह काम इस उपेक्षित धरोहर पर प्रकाश डालते हुए हिंदी साहित्य के इतिहास को और समृद्ध करता है।
पुस्तक ‘बेगमपुल से दरियागंज’ नॉस्टैल्जिया, शोध और साहित्यिक विश्लेषण का अद्भुत संगम है। यह किताब पल्प की चमकदार दुनिया का दरवाज़ा खोल देती है और बताती है कि यह केवल कागज़ी रोमांच नहीं था, बल्कि पूरे समाज की धड़कन थी।
बेगमपुल से दरियागंज
यशवंत व्यास
पेंगुइन स्वदेश
पृष्ठ : 232
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